और फिर एक दिन
बात है तब की,
जब उम्र थी पंद्रह और क्लास बत्तीस की ।
महीना याद नही ,
लेकिन गर्मी ज़बसदस्त थी ।
दाखला उसने लिया था उन्ही दिनों ,
पहली सीट पे बैठती थी।
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कम्बख्त मुश्किल सा नाम था ,
सही बोलने में हफ्ते निकल गए ।
नाम समझ मे क्या आया,
जाप जैसे होने लगा था।
बोलती थी धीमे धीमे और हँसती थी कम,
हुआ जो था अब तक सिर्फ यारोँ के साथ,
वैसी लगभग हालत मेरी भी हो चली थी।
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पतली , गोरी और सुनहरे लच्छेदार बाल।
लंबी वो थी ,
कद बढ़ाने में लेकिन ज़मात पूरी लगी थी।
चुप चाप कलम घिसती ,
देती जावाब सारे धड़ा धड़ ,
उफ्फ..... अँग्रेज़ी भी थी फ़र्राटेदार ।
उधर साल खत्म हुआ जा रहा था,
इधर मेरी उम्मीद फुर्रर होने लगे थी।
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फिर आया कयामत का दिन,
और मेरे सीने से दिल लुढक़ गया,
नब्ज़ बंद ,पसीना कभी ठंड कभी थरथरी सी ,
जैसे लगा हो लाइलाज़ रोग ,
हुआ यूं कि ,
Annual Day के dance में वो मेरी पार्टनर बनी थी ।
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